04-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

अब दृढ़ संकल्प की तीली से रावण को जलाओ

अकालमूर्त, आत्माओं को मुक्ति और जीवन्मुक्ति का वरदान देने वाले बापदादा बोले :-

अपने को फरिश्तों की सभा में बैठने वाला फरिश्ता समझते हो? फरिश्ता अर्थात् जिसके सर्व सम्बन्ध वा सर्व रिश्ते एक के साथ हों। एक से सर्व रिश्ते और सदा एक रस स्थिति में स्थित हों। एक-एक सेकेण्ड, एक-एक बोल, एक की ही लगन में और एक की ही सेवा प्रति हों। चलते-फिरते, देखते-बोलते और कर्म करते हुए व्यक्त भाव से न्यारे अव्यक्त अर्थात् इस व्यक्त देह रूपी धरनी की स्मृति से बुद्धि रूपी पाँव सदा ऊपर रहे अर्थात् उपराम रहे। जैसे बाप ईश्वरीय सेवा-अर्थ वा बच्चों को साथ ले जाने की सेवा-अर्थ वा सच्चे भक्तों को बहुत समय के भक्ति का फल देने अर्थ, न्यारे और निराकार होते हुए भी अल्पकाल के लिए आधार लेते हैं वा अवतरित होते हैं। ऐसे ही फरिश्ता अर्थात् न्यारा और प्यारा, बाप समान स्वयं को अवतरित आत्मा समझते हो? अर्थात् सिर्फ ईश्वरीय सेवा-अर्थ यह साकार ब्राह्मण जीवन मिला है। धर्म स्थापक, धर्म स्थापना का पार्ट बजाने के लिए आए हैं - इसलिए नाम ही है शक्ति अवतार - इस समय अवतार हूँ, धर्म स्थापक हूँ। सिवाए धर्म स्थापन करने के कार्य के और कोई भी कार्य आप ब्राह्मण अर्थात् अवतरित हुई आत्माओं का है ही नहीं। सदा ऐसी स्मृति में इसी कार्य में उपस्थित रहने वालों को ही फरिश्ता कहा जाता है। फरिश्ता डबल लाइट रूप है। एक लाईट अर्थात् सदा ज्योति-स्वरूप। दूसरा लाईट अर्थात् कोई भी पिछले हिसाब-किताब के बोझ से न्यारा अर्थात् हल्का। ऐसे डबल लाईट स्वरूप अपने को अनुभव करते हो? 

यह ब्राह्मण जीवन सिवाए ईश्वरीय कार्य के और कोई कार्य-अर्थ, बिगर श्रीमत के आत्माओं की मत प्रमाण वा स्वयं की मनमत प्रमाण और कहीं यूज़ तो नहीं करते हो? यह ब्राह्मण जीवन भी बाप द्वारा ईश्वरीय सेवा प्रति मिली हुई अमानत है। अमानत में ख्यानत तो नहीं डालते हो? संकल्प द्वारा भी इस ब्राह्मण जीवन का एक श्वांस भी और कोई कार्य में नहीं लगा सकते। इसलिए भक्ति में श्वासों-श्वास सुमिरण का यादगार चला आता है। निरन्तर के फरिश्ते हो वा अल्पकाल के फरिश्ते हो? जैसे भक्ति में भी नियम है कि दान दी हुई वस्तु वा अर्पण की हुई वस्तु कोई अन्य कार्य में नहीं लगा सकते। तो आप सबने ब्राह्मण जीवन में बापदादा से पहला वायदा क्या किया? याद है वा भूल गये हो? बाप के आगे पहला वायदा यह किया कि तन-मन-धन सब आपके आगे समर्पण है। जब सर्व समर्पण किया तो सर्व अर्थात् संकल्प, श्वास, बोल, कर्म, सम्बन्ध, सर्व व्यक्ति, वैभव, संस्कार, स्वभाव, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति - सबको अर्पण किया। इसको ही कहा जाता है समर्पण। समर्पण से भी ऊपर और पॉवरफुल शब्द, स्वयं को सर्वस्व त्यागी कहते हो। 

सभी सर्वस्व-त्यागी हो वा त्यागी? सर्वस्व त्यागी अर्थात् जो भी त्याग किया, सम्बन्ध, सम्पर्क, भाव, स्वभाव और संस्कार, इन सबको पिछले 63 जन्मों के रहे हुए हिसाब-किताब के अंश को भी वंश-सहित त्याग किया हुआ है, इसलिए सर्वस्व त्याग कहा जाता है। ऐसे सर्वस्व त्यागी, जिनका पिछला हिसाब वंशसहित समाप्त हो गया - ऐसा सर्वस्व त्यागी कभी संकल्प भी नहीं कर सकता कि मेरा पिछला स्वभाव और संस्कार ऐसा है। पिछला हिसाब अब तक कभीकभी खींचता है वा कर्म-बन्धन का बोझ, कर्म सम्बन्ध का बोझ, कोई व्यक्ति वा वैभव के आधार का बोझ मुझ आत्मा को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं? यह संकल्प व बोल सर्वस्व त्यागी के नहीं हैं-सर्वस्व त्यागी, सर्व बन्धनों से मुक्त, सर्व बोझों से मुक्त, हर संकल्प में भाग्य बनाने वाला पदमा-पदम भाग्यशाली होगा। ऐसे के हर कदम में पदमों की कमाई स्वत: ही होती है। ऐसे सर्वस्व त्यागी हो ना? शब्द के अर्थ स्वरूप में स्थित हो ना? बोलने वाले नहीं लेकिन करने वाले और अनेकों को कराने वाले हो ना? मुश्किल तो नहीं लगता है? मुश्किल लगने का तो सवाल ही नहीं उठना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण जीवन का ‘धर्म और कर्म’ ही यह है। जो जीवन वा निजी कर्म होता है वह कभी किसी को मुश्किल नहीं लगता है। मुश्किल तब लगता है जब अपने को अवतरित हुई आत्मा अर्थात् शक्ति अवतार नहीं समझते हो। सदैव यह याद रखो कि मैं अवतार हूँ। धर्म स्थापन करने अर्थ ‘धर्म-आत्मा’ हूँ। धर्म अर्थात् हर संकल्प स्वत: ही धर्म-अर्थ होते हैं-समझा? ऐसे को कहा जाता है फरिश्ता। 

अभी ऐसा बोल कभी नहीं बोलना - क्या करूँ, कैसे करूँ, होता नहीं, आता नहीं और न चाहते हुए भी हो ही जाता है। यह कौन बोलता है? फरिश्ता बोलता है या सर्वस्व त्यागी बोलता है? मास्टर सर्वशक्तिवान् और यह बोल! - दोनों की तुलना करो - मास्टर सर्वशक्तिवान् यह बोल बोल सकता है? क्या अनेकों को बन्धन-मुक्त करने वाली आत्मा ऐसा बोल, बोल सकती है? यह बन्धन-मुक्त आत्मा के बोल हैं? परन्तु आप तो सभी बन्धन-मुक्त आत्मा हो। आज से ऐसे संकल्प और बोल सदा के लिए समाप्त करो। दृढ़ संकल्प की तीली से आज इन कमजोरियों के रावण को जलाओ। अर्थात् ‘दशहरा’ मनाओ। पाँच विकारों के वंश को भी और पाँच तत्वों के अनेक प्रकार के आकर्षण को भी इन दस ही बातों के विजयी बनो। अर्थात् विजय का दिवस मनाओ। अच्छा। 

ऐसे ‘विजय दिवस’ मनाने वाले विजयी रत्न, जिनके मस्तक पर विजय का अविनाशी तिलक लगा हुआ है, ऐसे अविनाशी तिलक धारी, सदा अकाल तख्त-नशीन, अकाल-मूर्त्त, सर्वआत्माओं को बन्धन-मुक्त बनाने वाले, योग- युक्त, स्नेह-युक्त, युक्ति-युक्त, सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। 

आज से दीदी-दादी के पास कोई नहीं जाना - सिर्फ रूहानी मिलन मनाने जाना - यह बातें करने न जाना - कुछ लेने के लिए जाना, लेकिन कम्पलेन्ट लेकर नहीं जाना। अच्छा। ओम् शान्ति। 

इस मुरली का सार

1. सिवाय धर्म स्थापन करने के कार्य के और कोई भी कार्य आप ब्राह्मण अर्थात् अवतरित हुई आत्माओं का है ही नहीं, सदा ऐसी स्मृति में रह कार्य करने वाले को ही ‘फरिश्ता’ कहा जाता है। 

2. फरिश्ता डबल लाइट रूप है। एक लाइट अर्थात् सदा ज्योति स्वरूप, दूसरा लाइट अर्थात् कोई भी पिछले हिसाब-किताब के बोझ से न्यारा अर्थात् हल्का।